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Book online «यूं ही बेसबब - Santosh Jha (best android ereader txt) 📗». Author Santosh Jha



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और एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म के साथ मिला दिया जाये तो अराजकता की पूरी स्क्रिप्ट तैयार हो जाती है। अपने देश में इसकी नींव पड़ चुकी है।

और, अमेरिका की तरह ही, अपने देश में भी इस खतरनाक कल्चर को हवा दे रहा है मीडिया। मीडिया स्वयं ही पेरिफेरल सोलिपसिज्म और एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म की शिकार दिखती है। आम इंसान की यही कमजोरी रही है कि वह समस्याओं तथा संभावित समाधानों को ज्यादातर एकपक्षीय होकर देखता है। मीडिया से सर्वदा अपेक्षित है कि वह एक एसीमिलेटिव, इंटेगरेटिव एवं होलिस्टिक नजरिया रखे। ऐसा हो नहीं पाता क्यों कि मीडिया अपनी जिद में आवश्यक प्रशिक्षण और इंटेलेक्चुअल सेल्फ रेगुलेशन की अहम जरूरत को नकारता रहता है। तंत्र का एक जवाबदेह हिस्सा होने की बात को नकारना मीडिया की सोलिपसिज्म और एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म प्रदर्शित करती है।

अमेरिकी विशेषज्ञों का मानना है, समाज और संस्कृति में सेलिब्रिटी कल्चर का बहुत ज्यादा दुष्प्रभाव पड़ा है। आम अमेरिकी टीनेजर्स, युवा और आम आदमी भी, चाहे वह सेलीब्रेटीज को कितना भी गालियां दे दें, वे उनकी जीवनशैली की नकल करने में पीछे नहीं। ये सेलीब्रेटीज, हर उस समस्या व यथार्थ से अपने को उपर मानते हैं और उनका बर्ताव, एक तरह से सोलिपसिज्म और एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म के अराजक मानक तय करते हैं। मीडिया इन सेलीब्रेटीज की हीरो-वर्शिप का एक खतरनाक कल्ट पैदा कर चुका है। पापाराजी इसी कल्ट की सबसे खतरनाक उपज है।

अपने देश में भी यह सब खूब चल रहा है। टीवी चैनल ही नहीं, प्रिंट मीडिया भी सेलीब्रेटी-कल्चर को भुनाने में लगा है। खतरनाक बात यह है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के एंकर और प्रेजेंटर अपने आप में एक बेहद पावरफुल सेलीब्रेटी बन चुके हैं। आम दर्शक इनके फैन-फालोअर हैं और यही नीयो-सेलीब्रेटीज अराजकता के सबसे प्रबल पापाराजी हैं। स्पाट पर आम मीडियाकर्मियों ने उतनी अराजकता नहीं फैलायी। इसका ज्यादा दोष स्टूडियो में बैठे पाप-सेलीब्रेटीज का है।

जरा इसे समझें। पहले अखबारों में एडिटिंग डेस्क होते थे। माना जाता था कि फील्ड से रिपोर्ट करने वाला शख्स चूंकि आवाम से जुड़ा होता है और माहौल से प्रभावित हो सकता है, इसलिए सबएडिटर्स उनकी कापी को कड़ाई से एडिट करते थे। डेस्क सेल्फ-रेगुलेशन का सशक्त औजार था। अब लगभग सभी अखबारों में डेस्क विलुप्त है। रिपोटर्स खुद स्टोरी फाइल करते हैं, खुद ही पेज बनाते हैं और बिना रेगुलेशन के वे छपते हैं। जिलों से भी जो खबरें आती हैं, उन्हें भी कोई एडिट नहीं करता, सिर्फ कुछ बड़ी व्याकरण की गलतियां ही चेक की जाती हैं।

इलेक्ट्रानिक चैनल में स्थिति और भी विकट है। सारा सिस्टम समय के साथ जंग लड़ता होता है। ब्रेकिंग न्यूज और फस्र्ट विथ न्यूज की मारामारी में कांटेंट की जिम्मेदारी का पहलू अनदेखा करने की मजबूरी भी है और अब सब कुछ एक एक्सेपटेड-रिचुअल हो गया है।

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अब छोड़ दिया...!

बहुत साल पहले, एक फिल्म त्रिशूल देख कर आए मेरे चचा बेहद बेहद खफा थे। बस शुरू हो गये - हद है, तहजीब गयी तेल बेचने, अब तो सिनेमा देखना ही छोड़ दूंगा।

हिम्मत जुटा कर मैंने उनसे पूछा, किस बात से नाराज हैं?

कहने लगे, सिनेमा में कभी भी गलत बात नही दिखानी चाहिए, सिनेमा हमारे समाज की तहजीब का हिस्सा है। समझाया, देखो बेटा, ये जो अमिताभ की मां, वहीदा ने गाने में कहा, मेरी बर्बादी के दामिन अगर आबाद रहे, मैं तुझे दूध ना बख्सूंगी तुझे याद रहे, ये बेहद गलत है। कोई मां अपने बच्चे को वाय्लेन्स सीखाती है? कोई अपने बेटे से कहता है कि तू दुश्मनी की आग मैं जलता रह। कैसे मां होकर कोई कह सकती है अपने बेटे को कि वो रिवेंज के इमोशन्स को दुनिया के हर इमोशन और वैल्यू से ऊपर रक्खे। और दूध का वास्ता इसके लिए! हे भगवान, कैसे ऐसी फिल्में बनाते हैं! और एक बार कह गये तो कोई बात नहीं, पूरी फिल्म में बार बार इसको दुहराना, ओह!

मैं चुपचाप सरक लिया। छोटा था, कुछ समझ में नही आया।

ईश्वर की साजिश देखिए, अपने और परायों ने छोटी उमर से ही इतने दुख दिए मगर मां ने कभी वो नही कहा जो वहीदा जी ने बच्चन साहिब से कहा। हां, कबीर के दोहे याद कराए, बुरा जो देखन मैं चला मुझसा बुरा ना कोई!

... यही तहजीब है हमारी, ऐसी हैं माएं हमारी...।

वैसे, अब चचा जान फिल्में देख नही पाते, मैने कब का देखना छोड़ दिया है...!

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फिलास्फी एवं सायंस की जुगलबंदी हो, तो जीवन-संगीत को समझना आसान हो

प्राचीन एंव पारंपरिक भारतीय ज्ञान परिपाटी में इस माया संसार के विभिन्न चरणों की व्याख्या है और इन चरणों के अनुरूप इंसानों के लिए भावनाएं एवं कर्म दोनों ही निर्धारित कर दिये गये। गीता में स्पष्ट कहा गया है- जीवन क्षणभंगुर भले हो, मिथ्या नहीं है। यानि, यह माया भी एक वास्तविक मैकेनिज्म है, कोई छलावा नहीं है। धर्म में, जब आये थे और जब जाने का वक्त हो, दोनों ही चरणों के अुनरूप जो आश्रम व्यवस्था है और कर्म-भाव बोध है, वह एक जैसा तो हो ही नहीं सकता।

विज्ञान भी चाह कर भी कुछ अलग या अनूठा कहां कह पाता है। विज्ञान घटित या संभावी घटनाक्रम को कहां बदलता है, वह सिर्फ उनकी व्याख्या करता है, प्रोसेडयोरल डिटेल्स देता है कि जो हुआ, वह क्यों और कैसे हुआ। विज्ञान का कहना है, ऐसा संभवतः कुछ भी नहीं जिसे पदार्थ, यानि देह के अपने मैकेनिज्म के द्वारा नहीं बताया-समझाया जा सके। विज्ञान कहता है, जब इंसान को अपनी मौत की अवश्यमभाविता का आभास हो जाता है और मृत्यु के पदचाप कानों में स्पष्ट सुनाई देने लगते हैं तो उसके शरीर में एक रसायन का स्राव होने लगता है और यह हार्मोन इंसान को मृदुभाषी, सहज-सरल, प्रेममय-करुणामय बना देता है और इस कारण उसका स्वभाव एक असहाय बच्चे जैसा हो जाता है।

ऐसा होना देह का नैचुरल व स्वभावगत मैकेनिज्म है क्यों कि उसका मूल स्वभाव है सर्वाइवल और ज्यादा उम्र का व्यक्ति चूंकि शारिरिक तौर पर अक्षम हो जाता है और उसे समाज के सहारे की ज्यादा जरूरत होती है इसलिए एक नैचुरल मैकेनिज्म है अधिक उम्र में इंसान का कोमल स्वभाव हो जाना। इससे उसे समाज की मदद पाने में सहूलियत होती है और उसके सर्वाइवल के चांसेस बढ़ जाते हैं।

पिछले 15-20 सालों में इंसानी दिमाग के मैकेनिज्म को समझ पाने की दिशा में अद्भुत एवं अविश्वसनीय प्रगति हुई है। आम से लेकर विशिष्ट इंसान के स्वबोध, उसके चेतन-अचेतन-अवचेतन मन, उसके मनोभावो एवं मनोदशाओं के इंद्रधनुषी रंगों के मैकेनिज्म एवं प्रोसेस को बेहद तार्किक एवं सत्यापित तौर पर समझ पाने व बता पाने में अभूतपूर्व सफलता मिली है। माइक्रोबायल्जी, न्यूरोलाजी, नैनोटेक्नालाजी, क्वांटम कांशसनेस और पैथोलाजिकल एडवांसमेंट की वजह से परिदृश्य बेहद सुलझा हुआ सा लगता है।

यह कहना कि जो विज्ञान कहता है वही सही है और उसे पूर्णतः मान लेना चाहिए यह कहना अभी संभव नहीं, शायद कभी भी नहीं। मानवता अभी सब कुछ इस दावे के साथ नहीं कह सकती, शायद कभी भी नहीं। इंसानी सोच और उसके वैचारिक-सांस्कृतिक जीवन मूल्य आज के नहीं है। आधुनिक मानव इस पृथ्वी पर एक लाख सालों से है और हमारे प्राचीन मानव पूर्वज 40 लाख सालों से। विज्ञान कहता है, आज के इंसान में भी करोड़ों सालों पूर्व के उस जीव के जीन मौजूद हैं जो हमारा प्राचीन पूर्वज था, समुद्र में रहता था और जिससे हमारा ही नहीं, हजारों जीवों का विकास हुआ। हमारे और हमारे चचेरे पूर्वज चिंपाजी के जीन में एक प्रतिशत से भी कम का अंतर है, बंदर से मात्र दो प्रतिशत जीन ही भिन्न है हमारा। यहां तक की, गेंहूं और इंसानों के 34 प्रतिशत जीन कामन ही हैं।

विज्ञान कभी किसी भी रूप में किसी भी नए सत्य को क्रियेट नहीं कर सकता। हम बेकार विज्ञान से डरते-लड़ते हैं। यह सृष्टि, हमारा यूनिवर्स 14 बिलियन साल पहले बना, पृथ्वी 5 बिलियन वर्ष पहले बना। हमारे जीवन मूल्य, चिंतन, सवाल-जवाब, शरीर-मैकेनिज्म, भाव-भावनाएं आदि सब लाखों-करोड़ों साल पुराने हैं। सत्य तो स्थापित हो चुका है। अब सिर्फ वह परिमार्जित एवं परिष्कृत हो रहा है। विज्ञान सिर्फ अब इसकी व्याख्या कर रहा है कि जो हुआ, जो हो चुका है और जो होता आया है, वह क्यों और कैसे हुआ या हो रहा है।

कहा गया है, यह बताना या समझ लेना कि जो ईश्वर ने किया, वह कैसे किया और किस तरह हो पाया, यह किसी भी तरह ईश्वर या उनकी सत्ता को चुनौती देने जैसा नहीं है क्यों कि कोई ईश्वर कभी नहीं चाहेगा कि उसकी संतानें यह सब नहीं जान पायें...।

यह बेहद खुशनसीबी और खुशमिजाजी का सबब है कि विज्ञान ने आज इंसान को सही मायनों में सही सवाल करने का सलीका सिखाया है। इंसानी इतिहास इस बात की गवाह है कि हमनें ज्यादातर ही सवाल को ना समझ पाने की भूल की है। सही जवाब इंसान कभी पा ही नहीं सकता अगर उसके सवाल ही गलत हों। सही सवाल शायद यह नहीं है कि हम क्या देखते-समझते हैं। सही सवाल है कि जो हम देखते-समझते हैं, वह क्यों और कैसे देखते-समझते हैं। मैकेनिज्म से जुड़े सवाल अहम हैं। अब हम इसे समझ पा रहे हैं।

कौन नहीं मानता कि इंसान सिर्फ मैकेनिज्म नहीं है बल्कि वह मैकेनिज्म से बहुत ज्यादा है। मगर इंसान आज तक जितने भी सवाल करता रहा है वह ज्यादा के दायरे से है मगर, जब भी बात आती है कि ये सवाल तब तक सही नहीं हो सकते जब तक हम सब उन सवालों को भी न जानें-समझें जो मैकेनिज्म के दायरे में हैं, तो ज्यादातर इंसान बिदक जाते हैं और सापेक्ष तार्किक जंग शुरु हो जाती है।

हम सब हर नयी टेक्नालाजी को अपने जीवन में अपनाने की होड़ में शामिल होने में अपना गर्व समझते हैं मगर जो विज्ञान यह टेक्नालाजी देता है, उससे हमें बेहद एलर्जी होती है। मोबाइल फोन के मैकेनिज्म को बच्चा तक समझ जाता है मगर अपने शरीर और स्व के मैकेनिज्म को समझने से सबको परहेज है। सवाल यह शायद सही नहीं कि ईश्वर क्या है, सही सवाल यह लगता है कि हम, जो ईश्वर को एक सवाल बनाते हैं, वो क्या हैं।

अब इस नयी सहस्त्राब्दी में लगने लगा है, परिदृष्य बिलकुल साफ और स्पष्ट है। चाहे धर्म हो, अध्यात्म हो, मनोदशा-जनित सोच-भावनाएं हों या जीवन-मूल्यों के निर्धारण के मानक हों, सब एक तार से जुडे़ हैं और आपस में इनमें कोई विरोधाभास नहीं। और विज्ञान तो बस इनको एकलता एवं एकरूपता में समझने का प्रोसेस और मैकेनिज्म ही बताता है। मानवी जीवन में नया हमेशा फिलास्फी से शुरू होता है और सायंस पर आ कर स्थापित हो जाता है। सिर्फ दर्शन गलत सवालों की ओर ले जाता है और सिर्फ विज्ञान सवालों के जवाब को प्रभावहीन बना देता है। फिलास्फी एवं सायंस अगर साथ मिलकर सवाल-जवाब की जुगलबंदी का राग गायें तो फिर सब साफ हो जाये।

इस माया-नृत्य और जीवन-संगीत को जानना-समझना आसान भी है और बेहद दुश्वार भी। निर्भर इस बात पर है कि हम अपने सवाल कैसे चुनते हैं। जैसा सवाल चुनेंगे, वैसा ही जवाब मिलने की उर्जा बन जाती है। यही माया है, शायद!

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तो, कुल मिलाकर, जीवन का मर्म बस इतना है कि दाल में नमक कितना है

किसी ने कहा, थोड़ी सी गंभीरता बेहद खतरनाक होती है... और, ढेर सी गंभीरता तो बिलकुल ही जानलेवा साबित हो सकती है...!

अब लीजिये... आप कहेंगे, पता नहीं क्यूं लोग ऐसे पागल होते हैं कि कुछ भी कह देते हैं। मगर जरा ठहर कर गौर कर के देखें, तो अहसास होता है कि जो पते की बातें होती हैं, वो प्रथम दृष्टया बेहद हास्यास्पद ही लगती हैं मगर उनमें जीवन के सहज-सरल-सुगम यथार्थ का मर्म भरा होता है।

बात सिर्फ इतनी सी है कि हर विचार, हर कर्म व हर व्यवहार की एक खूबसूरत हद होती है। कर्म, विचार व व्यवहार अपने आप में शायद अच्छे या बुरे की परिभाषा में ना भी बांधे जा सकें मगर उनकी सार्थकता व उपयोगिता तभी साबित होती है जब वे एक बेहद खुशनुमेंपन के दायरे व सीमा में होती हैं।

तो, कुल मिलाकर जीवन का मर्म बस इतना ही है कि आपकी दाल में नमक कितना है - कम हुआ तो बेकार, ज्यादा हुआ तो भी बेकार... बस सही नमक ही जीवन की उपलब्धता व सार्थकता है।

बड़ा या महान कौन होता है, यह तो समाज-संस्कृति के बदलते मानकों के अनुसार कोई भी हो जाता है। मगर खूबसूरत और प्यारा वो इंसान होता है जो इस नमक के सही अनुपात को पकड़ पाये। महान लोग तो भरे पड़े हैं चारों ओर, कोई बेहद खूबसूरत-प्यारा इंसान नहीं मिलता... मिलता तो न जाने कितने ही सिलसिले, संगीत के रागों की तरह चल निकलते। है ना...!

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