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Book online «यूं ही बेसबब - Santosh Jha (best android ereader txt) 📗». Author Santosh Jha



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किस किताब में लिखा है?

जीवन और इसके सभी जरूरी कर्म एक तरह से आध्यात्मिकता से जुड़े हैं। अपना काम खुद करना अपने कर्म के प्रति कर्तव्यनिष्ठा का प्रमाण है। और इससे भी मजेदार बात यह है कि खाना बनाना बेहद सुकूनदेह कर्म है। कहते हैं, मां के हाथों से बने खाने का स्वाद और उस खाने के साथ जो ममता का सुख है, उसके लिए खुद भगवान भी लालायित रहते हैं। तो भला हम इंसान क्यूं भागते फिरते हैं इस सुख से? औरत हो या मर्द, ममता का सुख तो हर किसी को सुख ही देगा। एक बाप अपनी प्यारी सी बिटिया को गर्मागरम परांठे बना के ममत्व से खिलाये तो क्या वह बाप वैसा ही सुख नहीं पायेगा जैसा एक औरत पायेगी? तो फिर झूठे गुमान और मर्दानगी में क्यूं खुद को इस सुख से महरूम करें पुरुष।

और महिलायें अगर खुद को साबित करने के लिए, पुरुष की सनातन मूर्खताओं से तथाकथित बराबरी करने के दंभ में इस नैसर्गिक सुख से स्वयं को वंचित करती हैं, तो भला इसमें कैसी होशियारी और इंटैलिजेंस है?

विश्वास कीजिये, खाना बनाना किसी योगकर्म से कम नहीं। कर के देखिये, खाना बनाना किसी यज्ञ से कम पावन व हितकारी नहीं है। इसे जरा समझिये और फिर स्वयं कर के देखिये। मैं आपको अपनी आपबीती सुनाता हूं -

मेरे दफ्तर में उस दिन बोर्ड के चेयरमैन और कई डायरेक्टर्स मौजूद थे। मुझे अपने पूरे जोन की डेवलप्मेंटल प्रेजेंटेसन देनी थी। सुबह जब मैं आफिस के लिये तैयार होने लगा तो अम्मा ने बांह पकड़ कर कहा - जाने से पहले जरा यह मटर छील कर जाना। देखा तो पूरा एक किलो मटर था। नानुकुर की गुंजाईश ही नहीं थी। अम्मा तो हर बास से उपर होती है। मैं काफी नर्वस भी था और इरीटेटेड भी कि पता नहीं दिन कैसा जायेगा और कही प्रेजेंटेसन पिट गया तो बड़ी भद पिटेगी। खैर, मटर छीलना शुरू किया। प्रारंभ में तो बड़ी कोफ्त हुई मगर आधे मटर छीलते-छीलते ही यह अहसास होने लगा कि कुछ अंदर ही अंदर शांत होने लगा है। फिर मटर छीलने में मजा भी आने लगा। फिर महसूस हुआ कि जो सुखद अहसास बन रहा था, वह इसलिए था कि मैं शायद बेकार ही वक्त में न जी कर आगे के समय में जी रहा था और आने वाले वक्त की आशंकाओं को लेकर अपना वर्तमान समय बैचेनी में गंवा रहा था। मगर मटर छीलने के क्रम में जो एक रिदम, एक तारतम्य बना, लम्हों के साथ जो जुड़ाव बना, उससे मैं पुनः वर्तमान में जीने को मजबूर हुआ। मेरी चेतना वापस अपनी समता पा सकी। मैं स्वयं के करीब आ पाया। मैं वर्तमान में आ पाया। और फिर, उस दिन आफिस में बासेस और सीनियर्स की जो तालियां मिलीं, उससे मटर से जिंदगी भर की दोस्ती हो गई। अम्मा को शायद यह सब पहले से पता था। मटर तो बहाना था...!

यह हुनर शायद महिलाओं को स्वभावगत आता है। हमारी भांजी का आईआईटी का रिजल्ट निकला अैर वह अच्छे रैंक से पास हुई। हमारी बहन जी ने सुना और फिर अपनी बिटिया से बेहद निर्विकार भाव से कहा - चलो अब मन निश्चिंत हो गया। तो पहले घर में झाड़ू लगा लो और फिर रोटियां सेंक लेना। आज भी बिटिया जब अनसैटल्ड होती है तो फट से पूरे घर में झाड़ू लगाने लग जाती है। हर बार उसका चित्त शांत हो जाता है और वह अपने सम-चेतना व निश्छल बोध को वापस पा जाती है।

चेतना को समता भाव में लाने के लिए, जीवन के जो बेहद जरूरी कर्म होते हैं, वही सबसे ज्यादा सहायक होते हैं। कभी मन बेहद अशांत हो, बहुत टेंशन महसूस हो, तो गाना गाते हुए, अपने बाथरूम का कमोड साफ करने लगिये। विश्वास कीजिये, इस मूर्तता से जो अमूर्त भाव उपजेगा, वह आपको सहज-सरल-सुगम चेतना में वापस ले जायेगा। आप हल्का और सुख महसूस करेंगे।

खाना बनाना और खाना बना कर खिलाना, यह जो हम इंसानों का सबसे मूल कर्म है, यह ही हमारा सबसे सहज-सरल-सुगम आध्यात्म है। जीवन की उपलब्धियां स्वांतः-सुखाय होती हैं। जिस उपलब्धि से आंतरिक समता भाव न उपजे, स्वयं की चेतना को अमूर्त संतोष न हासिल हो सके, यह सार्थक नहीं है।

तो, कुल जमा बात इतनी सी है कि कोई मूर्त हमें वही सुख-संतोष दे पाता है जैसी हमारी चेतना व उसका बोध। और चेतना व बोध सिर्फ हमारे अपने हाथ में हैं। मूर्त को बदलने में बाहरी एनर्जी की जरूरत पड़ती है जबकि अमूर्त को परिवर्तित करने के लिए सिर्फ अपनी आंतरिक चेतना को नये बोधत्व में ढालना होता है। किसी बाहरी माध्यम की आवश्यक्ता नहीं होती।

बेहद आसान काम है। आईये, हम सब इसे करते हैं - स्त्री हों या पुरुष, कोई फर्क पड़ता है क्या? सुख-संतोष भी क्या स्त्री या पुरुष होता है?

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रिश्ते क्यूं टूट जाते हैं? बेहद आसान सा जवाब है, शायद...!

रिश्ते क्यूं टूट जाते हैं? इस सवाल के जवाब में अगर एक सवाल ही किया जाए! लोग क्यूं मर जाते हैं? वजह दोनो के ही कितने भी हो सकते हैं...!

चलिए, इस सवाल को उलट देते हैं... रिश्ते चलते कैसे हैं? इंसान जिंदा कैसे रहता है? क्या ऐसा है कि होने की वजह पता चल जाए तो ना होने का सबब मालूम हो पाए?

कोशिश करने मैं जाता क्या है! चलिए, सबसे पहले होने को ही परखा जाए। इतने प्लेनेट्स हैं हमारी गैलेक्सी मैं, फिर भी पृथ्वी पर ही क्यूं लाइफ शुरू हुआ और कैसे अमीनो एसिड से शुरू होकर सिंगल सेल का जीव और फिर इंसान बन पाया?

साइन्स की माने तो यूनिवर्स का ये सबसे कम्लीकेटेड मगर ब्रिलियेंट्ली सक्सेस्फुल कोइंसीडेन्स है जिसमें सारे फेवरेबल फैक्टर्स सिर्फ पृथ्वी पर ही बन पाए। तो? क्या ये मान लिया जाए कि किसी भी होने के लिए एक मेजर्ली फेवरबल कोइंसीडेन्स जरूरी है?

यही शायद वजह है कि ज्यादातर लोगों को पक्का भरोसा है कि ये सब कुछ अपने आप तो हो नही सकता इसलिए ये सब ईश्वर ने ही किया है। ये रूल आफ काउजैलिटी भी है। ‘There is always a somethingness even in nothingness.’ इसलिए ही ज्यादातर लोग ये भी मानते हैं कि रिश्ते भगवान बना कर और तय करके इंसानों को पृथ्वी पर भेजते हैं। यानि? मां बाप, भाई, बहन, दोस्त, पार्ट्नर, आदि सभी पहले से ही तय हैं! खैर, सभी रैशनल लोगों को इस हाइपोथेसिस की वीकनेस और अब्सरडिटी के बारे मैं अब शायद ही कोई शक होगा।

आज, पृथ्वी और इसपर इंसान के होने को लेकर भी उतना ही संकट है जितना एक आम ह्यूमन रिलेशन्शिप मैं होता है। इंसान के होने और इंसानों के रिश्तों के होने, दोनों पर ही एक्सटिंक्ट यानि विलुप्त होने का खतरा है। पृथ्वी पर इंसान के सर्वाइवल के लिए इकोलौजिकल थ्रेट्स है तो इंसानी रिश्तों के सर्वाइवल पर साइकोलौजिकल थ्रेट्स हैं।

जरा ठहर कर इस फेवरबल कोइन्सिडेन्स को समझा जाए। इसको समझ लेने से शायद इंसानी रिश्तों की सफलता का मैजिक कोड पता चल जाए। देखिये, बड़ी सिंपल सी बात है, जीवन के होने, या फिर जीवन के खत्म होने की जैसे वजहें होना तय है, वैसे ही रिश्तों व संबंधों के होने या ना होने वजहें होनी ही होती हैं। समझना बस इतना है कि जीवन अपने आप में ढेर सारी बेवजह वजहें हमें देती रहती है।

मगर, हमारा जो वजूद है, वह इन वजहों से तय हों, यह मुमकिन तो है मगर जरूरी बिलकुल नहीं। बल्कि, वजूद जीवन द्वारा चुनी वजहों से न बन कर ऐसा होना चाहिए कि वजहें हमारे वजूद से बनें और चुनीं जायें।

जीवन के बने रहने के लिए भी हमारे वजूद को बड़ी मेहनत-मशक्कत करके सही वजहें बनानी पड़ती हैं। तो साफ है कि रिश्तों एवं संबंधों को भी बनाये रखने के लिए हमें उतनी ही या ज्यादा मेहनत-मशक्कत करनी पड़ेगी ताकि उनके चलते रहने और बेहतर चलते रहने की सभी टिकाउ वजहें बनी रहें।

अपना वजूद ही सही वजहें तलाशे, यही उस्तादी है। इस उस्तादी को हासिल करने व बरकरार रखने के लिए जो जरूरी रियाज है, वह तो करनी ही पड़ेगी! है ना...!

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काश, किसी भी डेडलाइन के येस्टरडे होने के गिल्ट से निकल पायें हम सब

अपनी पहली नौकरी के पहले दिन मेरे सबसे पहले बास ने कहा, वेलकम टू द केयोस, एंड आल्वेज रिमेंबर, इन दिस प्रोफेशन, द डेडलाइन इस आल्वेज येस्टरडे...।

मैं कुछ देर चुप रहा फिर बेहद इनोसेन्स से पूछा, ये क्या सही है, मेरे काम शुरू करने से पहले ही जब मेरा डेडलाइन बीत गया तो मैं काम की शुरुआत ही एक गिल्ट से कर रहा हूं। ये तो गलत है...।

बास ने जवाब दिया, बेटा, यही दुनिया है, हम सब पैदा ही हुए हैं एक गिल्ट के साथ, इंसान ने एक फल खाया, जन्नत से निकाला गया और पृथ्वी पर गिल्ट की जिंदगी गुजारने पर मजबूर हुआ... कई साल तक नौकरी की और हर जगह यही ताकीद की गयी, योर डेडलाइन इस आल्वेज येस्टरडे...

जब मैं कुछ सीनियर हुआ, तो एक दूसरे बास ने समझाया, वर्कर्स को हमेशा गिल्ट में रखना चाहिए कि वो बेकार और नाकारा हैं और ये कंपनी ही है जो उनको ढो रही है, चाहे वो कितना भी अच्छा काम करें। खुद को नाकबिल समझते रहने के गिल्ट में रहेंगे तभी तो टाप मैनेजमेंट से भीख मांगेंगे और तभी हमलोग उनके लिए गाड बन पायेंगे...

एक ग्लोबल कंपनी के ओनर ने बेहद प्राइड से कहा, इन आवर कंपनी, वी आल्वेज वर्क एज इफ वी आर इन एक्यूट एमर्जेन्सी... दिस कीप्स वर्कर्स आन टोज फोरएवर...! यानी, कोई वर्कर नार्मल काम भी करे तो वो बेकार समझा जाए क्यूं कि उसको वो आउट आफ नार्मल करना है जो एमर्जेन्सी में करना चाहिए। यानि,गिल्ट पर्मानेंट रहे!

एक बेहद हाइ प्रोफाइल बास ने मुझे फिलासफी दी, संसार का यही दस्तूर है... ईश्वर भी हम सब ह्यूमन्स को एक पर्मानेंट गिल्ट में रखता है कि हम सब नाकारा हैं... फिर हम सब उस से गुजारिश करते रहते हैं, हमें ये दे दो, ऐसा बना दो, और वो दयावान बना फिरता है... हम नकारे न होंगे तो वह गाड कैसे बनेगा...!

सोचता हूं, पता नहीं सही भी करता हूं या नहीं, कि ये जो वर्कर्स हैं, वो अगर इस गिल्ट से निकल जायें, खुद पर विस्वास करने लगें कि वो अच्छे हैं, नाकारा नही हैं, और अगर कोई कमी है भी तो वो उसको लर्न कर के सुधार सकते हैं तब तो ये जो बासेस हैं, वो ही खुद नकारा साबित हो जायें...! क्यूं हम सब किसी ना किसी गिल्ट मैं रहते हैं... क्यूं हम सब ऐसे हैं... हम सब गिल्ट से बड़े क्यूं नही हो पाते?

ये जो माइंड-ट्रैनिंग है कि हम इंसान पैदा ही एक गलती की वजह से हुए हैं, ये सही नही है... किसी भी डेडलाइन का येस्टरडे होना सही है क्या? हम में है वो हुनर, इस डेडलाइन साइकालजी से निकल पाने की...। मगर, ऐसा हो नही पाता। हम सवाल ही नही कर पाते। खुद से ही नही पूछते कि जो हम कर रहे हैं, जो हो रहा है, वो क्या और क्यूं है।

इनर्सिया की स्थिति है। बल्कि, बेहद मासूमियत से ये कह कर टाल देते हैं, ज्ञान में बहुत कष्ट और झंझट है, कौन इस झमेले में पड़े... जो जैसा है, बुरा क्या है... ऐसे भी, अकेले हम क्या कर लेंगे...?

और ये गिल्ट भी क्या बुरा है... एक तरह से अच्छा ही है। जब पैदा ही गलत हुआ है इंसान तो उसकी हर गलती जायज है। मस्त रहिए... सब कर रहे हैं गलतियां तो ये और अच्छा है... कम से कम अपनी गलती पर शर्मिंदा तो नही होना पड़ता। शायद यही सही हो। जजमेंट इंसान थोड़े ही करेगा। करेगा वही बास...!


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तो किसी जेनेटिक ब्रिज के मैजिकल-कनेक्ट की जरूरत किसे है...!

कह देना बेहद आसान है, मगर किसी और को वही बात समझा पाना सबसे मुश्किल काम है। यह जो अंतर है, खाई है, दो इंसानों के बीच में, यह संसार के सारे बड़े फसादों की सबसे मजबूत जड़ है। इसलिए ही शायद इंसानी समाज-संस्कृति की शरुआत से ही, हर इंसान की यह मूल एवं सबसे तीव्र ख्वाहिश रही है कि इस अंतर और खाई को पाटा जाये।

संभवतः, इसलिए ही आम इंसान को अपने मूल अवचेतन मन में यह भरोसा महसूस होता रहता है कि कहीं न कहीं, ऐसा कोई एक पुल है, एक अनदेखा माध्यम है जो दो इंसानों के दिलों को जोड़ता है। ऐसा ही कोई अदृश्य सेतु या बंधन का तार या तारतम्य उसे स्वयं एवं अपने भगवान के बीच भी महसूस होता है। भगवान के होने या ना होने का लेना-देना शायद इस

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