यूं ही बेसबब - Santosh Jha (best android ereader txt) 📗
- Author: Santosh Jha
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तो न प्रेम, न भक्ति, न हीं संसार की कोई भी स्थिति व वस्तु वैसे हैं जैसा हमें या आपको दिखते हैं। वे वैसे ही हैं या हमें आपको दिखते या महसूस होते हैं जैसे हमारे आपके भाव। भाव बदलते ही यथार्थ बदल जाता है। तो जो व्यक्ति कल तक हमें जान से भी ज्यादा प्रेम करता था, वही जान लेने को आमदा होता है और प्रेम के ही आवेश में जान ले भी लेता है। कमाल है!
तो क्या हो गया? प्रेम तब भी था अब भी है। एक प्रेम जान देने को तत्पर था वही प्रेम जान लेने को उतारु हो जाता है। कारण हैं बदले हुए भाव। प्रेम वही है, वस्तु व व्यक्ति वही हैं मगर जैसे ही भाव बदल गये, सारा यथार्थ व सत्य बदल गया। इसलिए कि प्रतीति बदल गई।
तो कुल मिलाकर जो बात गौरतलब है, वह है कि हर इंसान, कुछ भी करने से पहले, अपने भावों का शांत मन-चित्त से आत्मविश्लेषण कर ले। बिना अपने निहित भाव को परखे बिना कोई भी कर्म व व्यवहार न करें। अपने कर्म व व्यवहार के साथ जो भाव जुड़े हैं, उनकी पूरी जांच-परख किये बिना किया गया हर कर्म वैसा ही फल देगा जैसे उस भाव से जुड़ी एनर्जी होगी।
तो जीवन में सफलता का मूलमंत्र है आत्मसंयम व पूर्ण आत्मविश्लेष्ण के साथ अपने कर्म व व्यवहार के निहित भावों को आब्जेक्टिवली जांच-परख लेना और फिर तय करना कि कोई भी आप द्वारा निधारित कर्म व व्यवहार सही व उचित है या नहीं।
अमूमन, हम सब लोग एक स्थायी प्रतिक्रियावादी या रियैक्टिव भाव में जीते हैं जो हमारा एक तरह से आटो-बिहेवियर है। इस रियैक्टिव आटो-बिहेवियर के पीछे हमारे निहित भाव बिना जांचे-परखे हम निष्पादित कर देते हैं। इसे उसी क्षण रोक लेने की जरूरत है। कुछ भी, कोई भी कर्म व व्यवहार रियैक्टिव आटो-बिहेवियर के तहत नहीं करना चाहिए। इसके गलत होने या नुकसानदेह होने की आशंका बनी रहती है। जान लें कि इंस्टिंक्टिव बिहेवियर या जिसे अमूमन लोग दिल की आवाज कहते हैं, वह एक छलावा है और बेहद कमजोर अवधारणा है। हम जिस समाज व संस्कृति में जीते हैं, वहां सफलता कभी भी इंस्टिंक्टिव व रियैक्टिव आटो-बिहेवियर से नहीं प्राप्त हो सकती। बल्कि आज जो चारो ओर आपको समाज व संस्कृति में आवेश व गुस्सा दिखता है वह इसी इंस्टिंक्टिव व रियैक्टिव आटो-बिहेवियर की वजह से है।
संबंधों में, प्रेम में, आस्था में और जीवन के हर महत्वपूर्ण पहलुओं में इंस्टिंक्टिव व रियैक्टिव आटो-बिहेवियर ही सबसे बड़ा गुनाहगार होता है। आत्मसंयम व पूर्ण आत्मविश्लेष्ण के साथ अपने कर्म व व्यवहार के निहित भावों को आब्जेक्टिवली जांच-परख लेने से हम बेहतर सफलता पा सकते हैं और जीवन के हर मोड़ पर ज्यादा सुख-संतोष पा सकते हैं।
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दुविधा में न रहें क्यों कि इसमें ना माया मिलती है ना राम
ऐसे तो, संभवतः शायद ही कोई एक विचार या राय हो जिस पर सभी इंसानों की एक राय या विचार बन पाये, मगर यह संभवतः निर्विवाद सत्य है कि हर विचार व हर राय की अपनी एक अहमियत है, उसका अपना एक औचित्य बनता है और थोड़ी व आंशिक ही सही, उपयोगिता व सार्थकता निकल ही आती है। लेकिन, इंसान होने की शायद सबसे बड़ी समस्या यह है कि सिर्फ इंसान या अच्छा इंसान होने से बात बनती नहीं। हर इंसान को एक बेहद सफल इंसान बनने की अपनी जिद भी होती है और परिवार-समाज की चाहत भी। अब परेशानी यह भी है कि सफलता का मानव समाज में कोई तयशुदा एकल मानक, मत या राय तो है नहीं। वैसे तो अच्छा इंसान होने का भी कोई तयशुदा एकल मानक नहीं। इसलिए हर इंसान ताउम्र तमाम तरह की कवायदों में लगा रहता है और आखिरी सांस तक इस जद्दोजहद में होता है कि मरने से पहले तक भी वह कम से कम सफल इंसान का तगमा या सर्टिफिकेट पा जाये।
अमूमन, किसी एक इंसान की इतनी औकात तो होती नहीं कि वह अकेला यह तय कर सके कि सफल या अच्छा इंसान होना क्या होता है या किसे कहते हैं। इसलिए, ज्यादातर लोग, समाज-संस्कृति में तात्कालीन प्रचलित सफलता व अच्छाई के मानक को मंजूर कर लेते हैं और ताउम्र उसी मानक को प्राप्त कर सकने की जोड़-तोड़ में जूझते रहते हैं। तो, मूलतः, ऐसा प्रतीत होता है कि सफल इंसान होना एक तरह की गुलाम प्रवृति है। संभवतः, लकीर का फकीर होना, अच्छा नकलची होना या यूं कहें कि मौलिकता का उपासक न हो कर बहुमत का गुलाम होना शायद सफलता का मूल-मंत्र दिखता है। यह भी मूलतः एक राय ही है, जिसकी एकल साथर्कता निर्विवाद नहीं हो सकती!
मगर, फिर बात वहीं आ कर अटकती है - मौलिकता एवं सार्थकता जैसे विचारों एवं रायों पर कोई एकमत या आम सहमति तो है नहीं, इसलिए कोई आम इंसान कैसे तय कर पाये कि उसे जीवन में करना क्या है। एक आम इंसान के लिए तो एक तरफ कुंआ तो दूसरी तरफ खाई है। वह भला कैसे तय करे कि उसे करना क्या है। अगर वह वैचारिक मौलिकता या स्वबोध-जनित चिंतन या जीवन-मूल्यों की बात करता है तो सब उसका मजाक उड़ाते हैं कि लो साहब, आ गये एक और फिलास्फर, काम के ना काज के नौ मन अनाज के! और अगर वह बिना सोचे-समझे, समाज-संस्कृति द्वारा निर्धारित सफलता व अच्छाई के मानकों के पीछे अपना पूरा जीवन लगा भी देता है तो उसको वांछित सफलता नहीं मिलती, क्यों कि इस मैड-रैट-रेस में करोड़ों लोग लगे हैं और सफलता मिलती चंद हजार को ही है। तो, हुआ यह कि दुविधा में दोनो गये, माया मिली न राम!
तो, कुल मिला कर जीवन दुविधा से ही शुरु और दुविधा में ही खत्म! क्या वास्तव में यही है जीवन का कटु सत्य? नहीं साहब, ऐसा शायद है नहीं। ऐसा दिखता जरूर है मगर यह भी एक ऐसी स्थिति है जो अन्य सभी विचारों व रायों कि तरह एकमात्र सत्य नहीं है। हमलोगों ने पहले ही समझ लिया है कि यथार्थ व प्रतीति में बड़ा फर्क है - परसेप्शन इज नाट आलवेज रियेलिटी !
एक बेहद सहज-सरल-सुगम सत्य या स्थिति है जिसे हिंदी में समग्रता कह लें और अंग्रेजी में होलिज्म कह लें। यानि, यह मान कर जीवन जीना कि सत्य एकल नहीं है और सत्य हर विचार व राय में होते हुए भी पूर्ण व अद्वितीय नहीं हैं। यानि, हर विचार व राय कि अपनी अहमियत है, हर चीज का अपना औचित्य व सार्थकता है। प्रतीति भी अपना एक वजूद रखती है और उसकी भी अलह्दा सी कैफियत है।
इसे मंजूर करते ही जो बड़ा सत्य सामने आता है वह है - जीवन में सफलता व अच्छाई किसी एक या विशिष्ट कार्य व उपलब्धि में सीमित नहीं है। आप कुछ भी करें, सहज-सरल-सुगम मनोभाव से करें, उसमें सफलता व अच्छाई निहित है। कोई भी कर्म हो, कितनी भी छोटी सी बात हो, अगर हम उसे सहज-सरल-सुगम प्रेम व करुणा के भाव से करें तो वह उपलब्धि है, उसमें सफलता व अच्छाई है।
हम सबके पास दो रास्ते होते हैं- पहला यह कि हम जीवन में खूब मेहनत व जद्दोजहद करें कि हमें कोई बड़ी व सार्थक सफलता मिले। वह मिल भी सकती है और नहीं भी। ज्यादा संभावना नही मिलने की होती है क्यूं कि पृथ्वी पर इतने ज्यादा इंसान हैं और अवसर बेहद सीमित, इसलिए बड़ी सफलता भी बहुत सीमित लोगों को ही मिल पाती है, भले बहुत से लोग बेहद टैलेंटेड व हकदार हों भी। आज विश्व में पंचानवे प्रतिशत संसाधान मात्र पांच प्रतिशत ही लोगों के पास है। तो आप जान लें कि सफलता कितनी दुरूह है।
दूसरा रास्ता यह है कि हम बड़ी व तथाकथित सार्थक सफलता के पीछे ना भाग कर एक ऐसी चेतना व ऐसा बोध विकसित कर पायें जो छोटी से छोटी चीज, कार्य व उपलब्धि में भी बड़ी सार्थकता का अनुभव कर पाये। यह भी नहीं कि हम बड़ी सफलता के लिए मेहनत ना करें, जरूर करें, मगर सिर्फ उसके गुलाम न हो कर उसके साथ-साथ जीवन की हर चीज व उपलब्धता का भी उतना ही लुत्फ उठा पायें। तो लाख पाने के चक्कर में शायद चवन्नी भी ना मिले मगर ढेर सारी चवन्नियां जमा करके कुछ हजार तो निश्चित ही जुटा सकते हैं हम सभी।
महान लेखक-विचारक लियो टाल्सटाय ने जीवन के आखिरी साल में अपनी सारी महान किताबों को डिसओन कर दिया। कहा कि वे सब बेकार हैं और उन्होंने नहीं लिखी। फिर वे अपने गांव चले गये और आम इंसानों के साथ बाकी समय व्यतीत किया। तो कुल मिलाकर जीवन का सत्य यह दिखता है कि - समग्रता या होलिज्म जीवन जीने की सबसे खूबसूरत कला है। हम सबको इसी कला को अपने अंदर विकसित करना है। यही संभवतः सच्ची व सहज-सरल-सुगम सफलता व अच्छाई की जीवन-राह है। इस राह में कोई मंजिल है नहीं क्यूं कि सिर्फ चलना है और चलते रहने में ही कदम-कदम पर सुख-संतोष के बिखरे पड़े मोती चुनते जाना है। तो मंजिल की चिंता नहीं और यह तय है कि मरने तक मोतियों का बड़ा खजाना चेतना में जमा रहेगा। और कुछ चाहिए क्या?
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खाना बनाईये, बना कर खिलाईये - इससे सहज कोई स्वांतः-सुखाय आध्यात्मिक कर्म नहीं
हर मूर्त, यानि टैंजिबल मैटर में कुछ न कुछ अमूर्त, यानि इंटैंजिबल छुपा व निहित होता है। यह बेहद सुखद है कि हम आप किसी मूर्त के स्वरूप को बदलना चाहें तो बेहद कठिनाई होती है मगर उसमें निहित अमूर्त को नया स्वरूप देने में कोई परेशानी नहीं होती। क्यूं कि मूर्त को बदलने में बाहरी एनर्जी की जरूरत पड़ती है जबकि अमूर्त को परिवर्तित करने के लिए सिर्फ अपनी आंतरिक चेतना, यानि कांश्यसनेस को नये बोधत्व, यानि काग्निशन में ढालना होता है। किसी बाहरी माध्यम की आवश्यक्ता नहीं होती।
यह बेहद आसान काम है - हम जब किसी पत्थर में शिव के बोध को देख-समझ पाते हैं तो फिर जरूर ही इंटैजिबिलिटी बेहद आसान काम है! बस चेतना व बोध के स्वरूप को बदलना होता है, कोई पहाड़ नहीं तोड़ना होता!
चलिए, जब यह हाईपोथेसिस मान ली गई है तो हम एक ऐसी प्रक्रिया की चर्चा कर लें जिससे इस मूर्त-अमूर्त की अवधारणा का आम जीवन में लाभ समझा जा सके। हम सब के जीवन में एक बेहद जरूरी मूर्त स्वरूप है वह है - खाना बनाना। अमूमन, शुरुआत से ही पुरुष को लगता रहा है कि खाना बनाना उसका काम नहीं बल्कि यह कार्य परंपरा से स्त्रियों का है। चूंकि, परंपरा से यह काम स्त्रियोचित करार दिया जा चुका है, इसलिए अब, बहुत सी आधुनिक महिलायें खाना बनाने के प्रति एक बगावती नजरिया रखने लगी हैं। उन्हे लगता है कि खाना बनाने से वे वह जंग हार जायेंगी, पुरुष से बराबरी की जंग, जिसके लिए उन्हें हर क्षेत्र में लड़ाई लड़नी पड़ रही है। तो, अब हालात यह हैं कि कोई भी खाना बनाना नहीं चाहता क्यूं कि हारना कोई भी नहीं चाहता! यानि, शिव को वापस पत्थर बनाने की जिद लिए बैठे हैं सभी!
अब देखिए, एक बेहद सहज-सरल-सुगम मूर्त तत्व, बेचारा कितने जटिल व जुझारू अमूर्तता के पचड़े में फंस कर जार-जार हो रहा है। भई कमाल है, खाना तो सभी खाते हैं, पुरुष हो या स्त्री। भूख तो बेहद जेंडर-न्यूट्रल तत्व है। मगर, भूख जैसे आब्जेक्टिव मूर्तता को भी हम मनुष्य अपनी सब्जेक्टिव चेतना के कपटी बोधत्व का जामा पहना कर ऐसी बहुआयामी अमूर्तताओं के हवाले कर देते हैं जो अनंत जंगों का सबब बन जाती है।
विश्वास कीजिये, पुरुष हो या स्त्री, खाना बनाना बेहद आध्यात्मिक कर्म है। न सिर्फ शास्त्रों में कहा गया है, बल्कि वैज्ञानिक पहलू भी है कि खुद को जिंदा रखना हर जीव मात्र का प्रथम कर्तव्य है। यानि, भूख हमें अपने प्रथम कर्तव्य की याद दिलाता है। मगर, खाना बनाना, जो कि मूलतः इसी कर्तव्य की पूर्ती का बेहद जरूरी कर्म है, उसे करने से हम सब भागते फिरते हैं और इस पवित्र कर्म को नकारेपन का दर्जा देने को लालायित रहते हैं। क्यूं भला?
वह इसलिये कि हमारे अवचेतन मन में यह बात परंपरा से बैठा दी गई है कि इंसानों के जरूरी कर्म उसके स्त्री या पुरुष होने पर निर्धारित होते हैं। यानि, खाना बनाना स्त्रियों का कर्म है और खाना खाना और मीन-मेख निकालना पुरुषों का! ऐसा भला
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