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Book online «यूं ही बेसबब - Santosh Jha (best android ereader txt) 📗». Author Santosh Jha



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प्रतीती, यानि जो है या नहीं है, उससे लेना-देना नहीं, मगर फिर भी जो स्वयं को दिखे या अहसास हो पाये वह! वाह...! इसलिए, ज्यादातर लोग, खासकर युवा कहते हैं - परसेप्शन इज रियैलिटी...!

तो अब आगे तर्क यह बन पड़ता हुआ सा दिखने जैसा लगने लगता है कि, इस संसार में सत्य से भी अहम व प्रभावकारी तत्व है मैं और उससे भी महत्वपूर्ण है मैं-बोध, यानि कागनिशन। मगर, इससे भी एक और महत्वपूर्ण बात वह है जिसकी चर्चा यहां करनी है। वह है चेतना...

चेतना, जिससे मैं का बोध बनता है, वह कोई स्थायी भाव या तत्व नहीं है। चेतना, यानि मैं का अहसास, हमारे बाहरी व भीतरी वातावरण से प्रभावित होने की वजह से नित्य व सतत् बदलता रहता है। यानि, चेतना का जो मैं-बोध है, वह स्थायी भाव नहीं है किसी भी इंसान के लिए। हम सब इंसान बदलती हुई चेतना एवं बदलते बोधत्व के साथ जीते हैं, उठते-बैठते हैं। इसलिए, हमारे लिए सत्य भी बदलते रहने को विवश हो जाता है। अगर बोधत्व को हवा या पानी जैसा तत्व मान लें तो साफ हो जाता है कि बोध को जिस किसी भी रूप में स्वीकारेंगे, वह अपने माध्यम जैसा ही स्वरूप ढाल लेगा। आपकी चेतना के अनुरूप आपके बोधत्व का स्वरूप! जैसा ग्लास, वैसी ही उसमें पानी की शक्ल व सूरत!

इसलिए, सबसे अहम बात यही है कि अपनी चेतना एवं अपने बोधत्व के इस अस्थायी स्वरूप को हम सब स्वीकारें एवं पहचानें। जैसे ही हम यह स्वीकार कर लेंगे कि हम या मैं एक स्थायी तत्व, टैंजिबिलिटी नहीं है, बल्कि, देश-काल-परिस्थिति के अनुसार विविध स्वरूपों में ढलने वाले भाव, इनटैंजिबिलिटी है, हमें समझ में आ जायेगा कि कैसे हमारे लिए कोई भी सत्य स्थायी नहीं हो पाता और कैसे एक ही जीवन के विभिन्न समयों में हम परस्पर विरोधाभाषी सत्यों के साथ जीते हैं और उसे मानते-मनवाते रहते हैं। एक बार हम-आप यह समझ जायें कि इंसान की व्यापक हिपोक्रिसी के पीछे उसकी खुद की चेतना की बनावट है, तो शायद हमारा सत्य के अन्वेषण की प्रतीति व प्रज्ञता आब्जेक्टिव हो पाये।

तो, ऐसा कुछ लगने जैसा महसूस होता है कि जो निरपेक्ष सत्य है, वह है -

जिसकी जैसी चेतना, वैसा ही उसका बोध और वैसी ही उसके सत्य की प्रतीती। फिर उसके ही अनुरूप उसकी नीयति!

और चेतना व बोध चूंकि कभी स्थायी नहीं होते, बदलते रहते हैं, इसलिए ही हमारा सत्य भी व्यक्तिगत होते हुए बदलता रहता है। यही हिपोक्रिसी का बीज-तत्व है। इसलिए ही सत्य की सापेक्षता का सिद्धांत, जीवन का मूलभूत सिद्धांत माना जाता है। सापेक्षता को स्वीकारिये, इससे हम सबको अपने सत्य के अलावा दूसरों के सत्यों को भी स्वीकारने में सुविधा होगी। सापेक्षता से करुणा भाव का जन्म होता है, जो प्रेम की पहली जरूरत है, वही बीज-तत्व है। और करुणा से जब प्रेम की लताएं चारों ओर फैलने लगेंगी, तब किसी को भी किसी भी सत्य को प्रतिपादित करने एवं मनवाने की जंग में उलझने की जरूरत नहीं महसूस होगी। ऐसे माहौल में वह सुलभ हो पायेगा, जिसकी चर्चा शुरुआत में की गई है-

किसी को भी, कुछ भी सिखा सकने की जरूरत नहीं होगी, क्यूंकि, हर कोई किसी से भी कुछ भी सीख सकने की चेतना-बोधत्व में होगा।

यही मानवता के लिए श्रेयस्कर प्रतीत होता हुआ सा दिखता है....। बाकी आप फैसला करें।

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स्वीकारिये एक नया आध्यात्म, जो एकल चेतना-विवेक को मोक्ष-द्वार तक लायेगा

क्या है आध्यात्म...? धर्म क्या है...? आध्यात्मिक होना या धार्मिक होना क्या है...? और फिर यह मूल प्रश्न कि क्या आध्यात्मिक या धार्मिक होना हरेक इंसान की मूल जरूरत है...?

पहली बात तो यह है कि सवाल सबके लिए एक ही हैं मगर, इस संसार में जितने लोग हैं, शायद उतने ही जवाब होंगे इन प्रश्नों के। खासकर, कुछ लोग हैं, जिन्हें मान्यता मिली हुई है कि वे ही सारे सही जवाब जानते हैं! लेकिन, इतना तय है, किसी सवाल का एक ही तयशुदा जवाब है, वह है... और मेरे-आपके मानने या ना मानने से उसमें कोई परिवर्तन होने से रहा। जैसे इंसानों के तयशुदा सवाल हैं, वैसे ही इन सभी सवालों के तयशुदा सिंगुलर एवं आबजेक्टिव जवाब भी हैं।

यह एक हकीकत है कि किसी भी सवाल का जैसा जवाब कोई इंसान कबूल करता है, वह उसकी तात्कालिक चेतना पर निर्भर करता है और फिर, वही जवाब और उसका व्यापक तत्व उस इंसान की चेतना व चरित्र को परिभाषित करने लगता है।

तो अगर एक इंसान यह मानता है कि ईश्वर एक शक्ति है जो संसार की हर चीज को नियंत्रित करती है, इसलिए उसकी विविध तरह से पूजा अराधना करने से वह सारे बिगड़े काम बना देती है, तो उसकी पूरी चेतना, चरित्र व प्रकृति पूजापाठ व कर्मकांड में लिप्त हो जाती है। इतना ही नहीं, अपने हर कर्म एवं निर्णय में वह इसी चेतना के अधीन होकर अपने को व्यक्त करता रहता है। उसके लिए बाकी सारे प्रश्न भी इसी मूल जवाब के दायरे में उत्तरित होते हैं। ऐसा मानने वाला व्यक्ति कोई अपनी ईच्छा से ऐसा नहीं मानता। यह लगभग तय है कि ऐसा मानने के पीछे उसके व्यक्तित्व में बचपन से ही ऐसे मानक व तत्व बन गये होंगे कि वह कोई और जवाब कबूल ही नहीं कर पाता। अगर आप इस व्यक्ति से यह पूछें कि वह जो मानता या समझता है वह क्यूं और कैसे मानता-समझता है तो वह आपको स्पष्टतया नहीं बता पायेगा। यह सब कुछ वास्तव में उसका अपना चुनाव भी नहीं है। यह सबकुछ उसकी अर्धचेतना का किया कराया है और इन सब में उसके विवेक व चेतन मन की कोई खास भूमिका नहीं है।

मूल बात जो कहनी है, वह यह है कि हम-आप जो अपने लिए चुनते हैं या जिसे सही मानते हैं, वह हमारी चेतना के रंग पर निर्भर करता है। इसका निर्णय ज्यादातर हमारा अर्धचेतन मन करता है और अधिकांशतः हमें इसकी खबर तक नहीं होती। फिर, हमारी चेतना भी सांयस के अनुसार सात अलग-अलग रंगों की होती है। किसी की चेतना योद्धा जैसी होगी तो किसी की संत जैसी। और इस संसार में हर चेतना की अपनी उचित भूमिका भी है। जितने जरूरी संत हैं, उतने ही योद्धा भी। भारतीय दर्शन के अनुसार चेतना के विभिन्न प्रकार हो सकते हैं जो निर्भर करता है कि किसी में तीन मूल प्रकार के गुण - तमोगुण, रजोगुण व सतोगुण किस प्रोप्रोर्शन, यानि अनुपात में हैं। हमारी चेतना के रंग या कह ले कि इसका प्रकार बचपन से हमारे मस्तिष्क में सृजित होता है और जिन तत्वों के बीच व जैसे माहौल में हमारी परवरिश होती है, मूलतः वैसी ही हमारी चेतना हो जाती है। फिर इसी चेतना के अनुरूप हम सवाल चुनते हैं और उनके जवाब भी। विज्ञान के अनुसार हमारा माइंड, सिर्फ 15 प्रतिशत जेनेटिक तत्वों से बनता है, बाकी 85 प्रतिशत हमारे परिवेश व माहौल से बनता है।

अब मूल प्रश्न पर आयें। क्या है आध्यात्म...? धर्म क्या है...?

इंसान का मस्तिष्क उसे एक ऐसी विकट स्थिति में डालता है जो सिर्फ इंसानों को ही झेलना पड़ता है। वह है हमारी विकसित चेतना। चेतना जानवरों में भी होती है मगर उनकी चेतना इतनी विकसित नहीं होती कि उनमें स्व-बोध एक परिपक्व सबजेक्टिव-सेल्फ का भाव बन सके जो हम इंसानों में बन पड़ता है। इसी कारण से कई सवाल बन पड़ते हैं - हम क्या हैं? जीवन क्या है? इस विराट सृस्टि से हमारा संबंध कैसा है? हम कहां से आते हैं और कहां विलीन हो जाते हैं, आदि। यही आध्यात्म है, यही धर्म है। इंसान का अपने व्यापक परिवेश से उसके संबंधों को परिभाषित करने की, उसके तमाम प्रश्नों एवं उनके जवाब पाने की उसकी मूल व प्रकृतिप्रदत जरूरत व ललक की ही उपज है आध्यात्म और धर्म। इसलिए, कभी भी किसी सूरत भी आध्यात्म को इंसान अपने जीवन से निकाल नहीं सकता, भले ही वह धर्म की जरूरत से धीरे-धीरे विमुख होता जाये। आज आधुनिक जीवन में जब धर्म से संबंधित लगभग सभी तत्व एक पढ़े-लिखे एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले इंसान को अतार्किक व अप्रभावकारी लगे, फिर भी, उसकी आध्यात्म की जरूरत कम नहीं होगी क्यूं कि उसके मूल व प्रकृतिप्रदत प्रश्नों के उत्तर उसे चाहिए ही होंगे। इसलिए, विज्ञान भी मानता है कि पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए हर इंसान को आध्यात्मिकता से जुड़ा होना ही चाहिए। अपनी मूल जरूरत से विमुख होकर इंसान कभी सफल व सुव्यवस्थित नहीं हो सकता।

यह तय है कि आध्यात्म हमारी मूल जरूरत है मगर हमारे प्रश्नों के वो जवाब अब आध्यात्म के पास भी नहीं हैं जो सिंगुलर व आब्जेक्टिव है और सबके लिए एक ही हैं, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो। ऐसा सभी मानने लगे हैं कि आने वाले सौ सालों में धर्म का स्थान एक ऐसा आध्यात्म लेगा जिसके पास जीवन के सभी मूल प्रश्नों के सिंगुलर व आब्जेक्टिव जवाब होंगे। तो भला यह नया आध्यात्म कैसा होगा?

नया आध्यात्म जीवन के प्रश्नों से पहले उन मूल प्रश्नों के उत्तर देगा जिन्हें समझने के बाद ही किसी और यथार्थ को समझ पाना संभव होता है। नया आध्यात्म हम सबको यह बताने में समर्थ होगा कि अब तक जो हम सब समझते आये थे, उनमें क्या कमियां थीं और उसकी वजह से हम सब क्यों उलझे हुए से थे। नया आध्यात्म यह सफलतापूर्वक बतायेगा कि इंसान की चेतना क्या है, यह कैसे बनती बिगड़ती है, उसके रंग व प्रकार कैसे निर्धारित होते हैं और क्यों हम सब अपने आसपास के चीजों व जीवन को वैसे समझते हैं जैसा हम समझते रहे हैं। नया आध्यात्म हमें तार्किक तौर पर बतायेगा कि हम इंसानों की मूल समस्या कहां और क्यों है? क्यों हममें इतना द्वंद्व है? क्यों हम इतने उलझे हुए व उद्वेलित रहते हैं। नया आध्यात्म हमारे सभी प्रश्नों के तार्किक, एकल व प्रामाणिक उत्तर देगा।

कहने का तात्पर्य यह है कि इंसान के मूल डीएनए से निकलेगा यह नया आध्यात्म एवं इसकी सिंगुलर व आब्जेक्टिव अवधारणाएं विज्ञान की उस समझ से स्थापित होंगी जो सबके लिए एकल ही हो सकेंगी। मूल प्रश्नों के प्रारूप बदल जायेंगे। नये सवाल होंगे कि हम जो अपने बारे में या पूरे परिवेश के बारे में सोचते-समझते हैं वह क्यूं और कैसे होता है। इसकी पूर्णतः वैज्ञानिक परिभाषा व मानक होंगे। जैसे, अगर किसी को हवाई जहाज उड़ाना हो तो वह विज्ञान की एविएशन संबंधी सिंगुलर व आब्जेक्टिव सिद्धांत से ही संभव होगा। चाह कर भी अलग-अलग लोग अलग-अलग सिद्धांत के आधार पर हवाई जहाज नहीं उड़ा सकते। वैसे ही जीवन के सारे प्रश्नों के एकल व प्रामाणिक उत्तर होंगे।

आज चाहे वह धर्म हो, आध्यात्म हो, जीवन संबंधी कई मूल प्रश्न हों या फिर खुद को ही समझने का ज्ञान हो, हर इंसान विभिन्न सिद्धांतों के तहत अपने-अपने जवाब तलाशता है और उसी के आधार पर अपनी चेतना व विवेक, यानि सही-गलत का मानक निर्धारित करता है। इसलिए ही विश्व में इतने प्रकार की आपस में टकराव व प्रतिस्पर्धा रखने वाली अवधारणाएं हो गयी हैं। यही मानव समाज का सबसे बड़ा संकंट है और आज के धर्म व आध्यात्म दोनों ही इस टकराव को और हवा दे रहे हैं। सही कोई भी नहीं है मगर दूसरे को गलत साबित करने के लिए किसी भी हद तक जाने की जिद आज मानवता का खात्मा करने के कगार पर है।

नया आध्यात्म इन सबसे उपर उठ कर सिंगुलर व आब्जेक्टिव जीवन-सिद्धांत को स्थापित कर मानव समाज को एकल सोच, एकल विवेक व एकल चेतना के द्वार तक लायेगा। यही हम सबके लिए सही मायनों में मोक्ष होगा।

नयी सहस्त्राब्दी मानवता के लिए नयी सोच एवं मानक ले कर आयी है। विश्व में कुछ बेहद सार्थक सोच बन रही है। ऐसा देख-समझ पाना आसान नहीं है। आधुनिक पापुलर संस्कृति में जहां चारो ओर उपभोग, बाजार, निवेश, रियलस्टेट, शेयरबाजार और अर्थतंत्र के अलावा सिर्फ राजनीतिक शोर ही सुनाई पड़ती है, वहीं कुछ बेहद संजीदा और समर्थ लोगों का छोटा सुमह ही सही, चुपचाप कुछ मूल सोच व चिंतन में लगा हुआ रहा है। उनका काम अब सामने आने लगा है।

यह मूल विषय हैं - चेतना, इंसान का मूल स्वभाव, उसकी चेतना-प्रक्रिया का उसके पर्यावरण व सामाजिक-सांस्कृतिक सोच पर असर आदि। विज्ञान ने मानवीय चेतना और उसके मूल स्वभाव को नये प्रारूप में समझने में मदद की है। आज इंसानी चेतना एवं मूलतः आदिचेतना को समझ पाने का बिलकुल नया व विश्वसनीय तरीका बन पड़ रहा है। हजारों सालों से हम जो स्वयं एवं अपनी शख्शिसयत को समझते रहे हैं, उससे बेहद भिन्न है आधुनिक चेतना-प्रणाली। इस नयी सोच ने कई मूल प्रश्नों के नये आयाम जोड़े हैं

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