शायद यही है प्यार - अभिषेक दळवी (best book reader .txt) 📗
- Author: अभिषेक दळवी
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मेरी खुशनसीबी थी कि मुझे दोस्त भी अच्छे मिल गए। देव और विकी मेरे रूममेट्स थे। देव मतलब देवानन्द तलपदे वह गोवा के किसी गांव से आया था। देव थोड़ा डरपोक था उसके डरपोक होने के पीछे वजह भी थी। उसके पिताजी की चार साल पहले डेथ हो चुकी थी और माँ एक छोटे से स्कूल में टीचर थी। देव की पूरी जिंदगी उसके डिग्री पर ही निर्भर थी। ऐसी हालातो की वजह वह करियर के बारे में बहुत सेंसिटिव्ह और डरपोक बन गया था। विकी उसके बिल्कुल उल्टा था। विकी मतलब विक्रांत धोत्रे वह मुंबई से था । उसकी जिंदगी भी मेरी तरह थी उसे अॅक्टर बनाना था पर फॅमिली प्रेशर की वजह से वह इंजीनियरिंग कर रहा था। वह अच्छा फुटबॉल प्लेयर भी इसलिए हम दोनो कम वक्त में ही अच्छे दोस्त बन गए। विकी बहुत बिंदास लड़का था उसके साथ रहकर ही मै भी थोडा बहुत बिंदास बन चुका था, वर्ना किसी प्रोफेसर को वॉशरूम में बंद करना मेरे लिए नामुमकिन था।
मैं कॉलेज में पढ़ाई के अलावा और बहुत सी चीजें कर रहा था। यहां आकर बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था। एक सुधीर नाम का लड़का था उसके फॅमिली की फाइनांशियल कंडीशन बहुत खराब थी। पिताजी ऑटो चलाते थे और माँ सब्जी बेचा करती थी। वह पढ़ाई में ज्यादा तेज नही था मगर उसके दिमाग में आयडिया बहुत कमाल के रहते थे। हमारे प्रोफेसर हमे नोट्स देते थे और हम उसके झेरोक्स निकालते थे। सुधीर सबसे पहले प्रोफेसर के पास जाकर नोट्स की ओरिजनल कॉपीज ले लेता था और कॉलेज छूटने तक हमसे पैसे लेकर उस नोट्स के झेरॉक्स वह हमें लाकर देता था। कॉलेज में ही एक झेरोक्स का दुकान था पर वहां हमेशा भीड़ रहती थी। उस भीड़ में खड़े रहने के बजाए हम सुधीर से ही झेरोक्स लेना पसंद करते थे। जितने पैसे झेरॉक्सवाला लेता था उतने ही सुधीर लेता था। वह सबके लिए नोट्स के झेरोक्स क्यों लेकर आता है ? यह सवाल हमेशा मेरे मन मे आता था। एक बार मैंने उससे इस सोशलवर्क की वजह पूछी। तब उसने जो कुछ भी बताया उसे सुनने के बाद वह कितना इंटेलिजेंट है यह मेरे समझ में आ गया। कॉलेज में जो दुकान था वहां झेरोक्स के एक पेज के एक रुपयह लिए जाते थे। पर कॉलेज से दस मिनट दूर एक झेरोक्स का दुकान था वहां एक पेज के ७५ पैसे और ५० से ज्यादा पेज होंगे तो हर एक पेज के ५० पैसे लिए जाते थे। सुधीर लंच टाइम में नोट्स लेकर वहां जाता था। एक नोट्स में कम से कम पांच पेज रहते थे। नब्बे झेरॉक्स कॉपीज निकालने के लिए काफी टाइम लगता था। उस टाइम में सुधीर वहीं पर टिफिन खाता था और लंच टाइम खत्म होने तक क्लास में आकर हमे नोट्स के झेरोक्स बेच देता। एक लड़के से अगर झेरोक्स के पांच रुपयह मिले तो नब्बे लोगों से एक नोट्स के ४५० रु आराम से मिल जाते थे। उससे आधा मतलब २५० रु उसका प्रॉफिट होता था। एक हफ्ते में हमे कम से कम १२ से १५ नोट्स मिलते थे। मतलब सुधीर की एक हफ्ते की कमाई तीन हजार से ज्यादा थी और महीने में झेरोक्स से १२००० रु से ज्यादा पैसे उसे आराम से मिलते थे। उस हिसाब से उसकी यह कमाई हमारे कॉलेज की फीज से ज्यादा थी। सुधीर को देखकर मुझे पापा की बाते याद आती थी।
" बिजनेस हर चीज में है। सिर्फ थोड़ा दिमाग लगाने की और मेहनत करने की जरूरत है पर ऐसा सब लोग नहीं कर पाते।"
सुधीर जहां से आधे दाम में झेरॉक्स लेता था वह दुकान हम सब को पता थी। कुछ लोगोंने उसे कॉपी करने की कोशिश की पर कोई भी उसका मुकाबला नही कर सका।
हम कभी कभी देर तक लायब्ररी में बैठा करते थे। तब हमारी बातें होती थी कि डिग्री के बाद क्या करना है ? हर कोई किसी ना किसी मल्टीनैशनल कंपनी का नाम बताकर वहां जॉब करने में दिलचस्पी रखता था। पर सुधीर को जॉब वैगरह करने की बिल्कुल भी चाह नही थी। वह खुद का वर्कशॉप शुरू करना चाहता था। हम में से कुछ लोग उसे कहते थे।
" वर्कशॉप एंड ऑल शुरू करके क्या तीर मार लोगे ? उससे अच्छा किसी मल्टिनैशनल कंपनी में जॉब ट्राय कर स्टेटस मिलेगा।"
इसपर सुधीर जो जवाब देता था वह सुनकर सबकी बोलती बंद हो जाती।
" तुम लोग जिस कंपनी में काम करोगे वहां तुम्हारे जैसे कई लोग होंगे। वह कंपनी पैसे का लालच दिखाकर तुमसे काम करवाएगी। अगर तुम काम ना कर सके तो तुम्हारे जैसे और लोग उन्हें आसानी से मिल जाएंगे। पर वर्कशॉप से मार्केट में मेरी एक पहचान होगी और अगर मेरे बिजनेस ने तरक्की कर ली तो जिस कंपनी में तुम काम कर रहे होंगे उस कंपनी से में फेस टू फेस डील कर सकूंगा । वैसे भी किसी भी बड़े कंपनी की शुरुवात किसी छोटे वर्कशॉप से ही होती है।" यह सुधीर का जवाब रहता था।
मेरे पापा भी हमेशा ऐसे ही कहते थे।
" हम मराठी लोगो को बिजनेस में दिलचस्पी नही है उन्हें नॉकरी करना पसंद है। नौकरी तो सब लोग करते है। धंदा करना सबके बस की बात नही, क्योंकी धंदे में डिग्री नही दिमाग लगता है पर वह हर किसी के पास नही रहता।"
जैसे जैसे मैं दुनिया देखने लगा था पापा की यह बाते मुझे सही लगने लगी थी।
हमारे प्रोफेसर्स का मंथली इनकम ज्यादा से ज्यादा तीस से पैतीस हजार रहता था। हमारे कॉलेज में एक परेश नाम के गुजराथी आदमी का झेरॉक्स का दुकान था और कॉलेज का कैंटीन का मालिक भी वही था। वैसे वह पढ़ा लिखा नही था दसवीं फेल था पर सिर्फ झेरॉक्स के दुकान से ही उसकी महीने की कमाई चालीस हजार से ज्यादा रहती थी। मगर हमारे पढ़े लिखे प्रोफेसर्स की सैलरी उससे कम थी। इस बात से मुझे हमेशा एक किस्सा याद आता है। हिटलर का जब भी लेक्चर रहता था तब उसे अटेंडन्स १००% लगती थी अगर कोई अपसेन्ट राह गया तो उसे दूसरे दिन सबके सामने वह बहुत डाँटता था और उसका एक डायलॉग बहुत फेमस था।
" तुम लोग अगर एक लेक्चर नही अटेंड कर सकते हो। मुझे नहीं लगता तुम जिंदगी में कुछ कर पाओगे।"
हमने बहुत बार उसकी ऐसी बाते सह ली फिर एक दिन पिछले बेंच से कोई चिल्लाया।
" सर, जिंदगी में कुछ करे या ना करे, कम से कम एक झेरॉक्स कि दुकान तो खोल ही सकते है।"
उस वक्त हिटलर का चेहरा देखने लायक हो गया था।
परेशभाई जब दुकान पर रहते थे तब कभी कभी हम उनको चिढ़ाते थे।
" क्या परेशभाई इतने बड़े कॉलेज में धंदा करते हो। कम से कम बारहवीं तक तो पढ़ाई कर लेते।"
उस पर वह अच्छा जवाब देते थे।
" बेटे, हम अनपढ़ है इसीलिए धंदा कर रहे है। अगर पढ़े लिखे होते तो नौकरी करने में ही जिंदगी बिता देते। हम दसवीं फेल है अगर पास हो जाते तो बाप किसी सरकारी ऑफिस में चपरासी की नौकरी लगवा देता और बारहवीं तक पहुँचते तो स्कूल मास्टर बनना तय था। मगर हमे नौकरी नही करनी थी। धंदा करना था। फेल होने के बाद यहां आ गए। चाचा के दुकान में पाँच साल काम किया।उसी से कर्जा लेकर यहां कँटीन शुरू किया। उसके बाद यह झेरॉक्स दुकान फिर एक एक करके और दो दुकाने शुरू कर दी। दो साल पहले ही अपने गाँव में माँ के नाम से स्कूल भी शुरू किया है। देखो बेटा, कई चीजें ऐसी होती है जिनमे हुनर की जरूरत होती है पढ़ाई नही। अगर हम पढ़ाई करने में वक्त बर्बाद करते तो आज एक मामूली स्कूल मास्टर होते, पर वही वक्त हमने अपना सपना पूरे करने में लगाया और आज एक स्कूल के मालिक है।"
मेरे पापा की स्टोरी भी कुछ ऐसी ही थी। मेरे दादाजी रिटायर्ड स्टेशन मास्टर थे,उनकी ख्वाईश थी की पापा भी सरकारी नौकरी करे। उनके मर्जी के खातीर पापाने रेल्वेज की एग्जाम दे दी। उस वक्त रेल्वे की नौकरी के लिए बहुत डिमांड थी। पापा के गाँव में रेल्वे में काम करनेवाले को बड़ा अफसर समझा जाता था। पापा को रेल में नौकरी मिल भी गई पर पापा को बिजनेस करना था। वह जब भी दादाजी से इस बारे में बात करते तब दादाजी का एक ही जवाब रहता था।
" धंदा करना तो गुजराथी ओर मारवारी लोगों का काम है। हम मराठी लोगों को खेती करनी चाहिए या फिर नौकरी।"
दादाजी पापा के बिजनेसमैन बनने के सपने से खिलाफ थे। फिर भी पापा अपने हिस्से की जमीन बेंचकर शहर में आ गए और चार ट्रक से बिजनेस की शुरुवात कर दी। पहले पहले कुछ लॉस उठाना पड़ा पर पापा हार ना मानते हुए मेहनत करते गए और आज १२० ट्रक , २० गोदाम , इतना ही नही केबल और होटेलिंग के बिजनेस में पार्टनरशिप इतना बड़ा बिजनेस खड़ा कर दिया।
पापा मुझे हमेशा कहते थे।
" तुम्हारे दादाजी मुझसे कहा करते थे।' नौकरी कर धंदा करना हमारा काम नहीं है।'अगर मैं उनके कहने के मुताबिक नौकरी करता तो आज कुछ हजार की पेंशन लेनेवाला रिटायर्ड अफसर होता इस कऱोडों की प्रॉपर्टी का मालिक नही बनता ।"
यह सब कुछ जानकर मुझे कभी कभी लकी होने का एहसास होता था क्योंकी मैं बिजनेस करना चाहता था और इसके लिए कोई भी मेरे खिलाफ नही था। उल्टा पापा का बिजनेस भी मैं ही संभालनेवाला था।
यहां सबकुछ अच्छा चल रहा था। मेस बदल ली थी। कॉलेज में ग्रुप भी अच्छा मिल गया था। विकी के साथ फुटबॉल प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी। एक बात की वजह से विकी कभी कभी उदास रहता था सिर्फ विकी ही नही क्लास के सब लड़के एक बात से उदास रहते थे। वह बात मतलब हमारे क्लास में लड़के पच्चासी और लड़कियां सिर्फ पाँच थी। मेकॅेनिकल में लड़कियां कम रहती है ऐसा मैने सुना था पर कितनी कम रहती है यह आज देख रहा था।
स्कूल में हमारी एक मॅम हमेशा हमे कहती थी।
" हमारे देश में मर्दो ने औरतों पर अत्याचार किए इसलिए आज लड़को के हिसाब से लड़कियों की तादाद कम है। हमे यह आज ही रोकना होगा वरना भविष्य में इसका अंजाम बुरा होगा।"
सच कहता हूँ, जिन मर्दो ने ओरतों पर अत्याचार किए थे उनपर मुझे अब गुस्सा आ रहा था। क्योंकी उनके अत्याचारों का अंजाम हमारे क्लास के लड़कों को भुगतने पड़ रहे थे। हमारे क्लास के सब लड़के उन पांच लड़कियों के इर्द गिर्द रहते थे। अब इसमें उनकी कोई गलती नही
थी, बढ़ती उम्र के साथ साथ एक दूसरे में दिलचस्पी बढ़ना कुदरत का ही तो नियम है। सबसे ज्यादा मजा प्रैक्टिकल करते वक्त आता था। प्रैक्टिकल के लिए हमारे क्लास के चार ग्रुप थे। हमारे ग्रुप में तीन लड़कियां और दूसरे ग्रुप में दो लडकियां थी। बाकी के दो ग्रूप में एक भी लड़की नही थी। वह लोग इसी वजह से हमारी ग्रुप को लकी ग्रुप कहते थे। प्रैक्टिकल करते वक्त जरा भी वक्त मिल जाता तब सारे लड़के उन तीन लड़कियों के इर्दगिर्द खड़े हो जाते। कोई उन्हें जोक सुनाता था। कोई किस्से बताता था। हर किसीको बस उन्हें इंप्रेस करने का चांस चाहिए था। हम लड़के अगर सिर्फ एक पेन भी मांगते तो वह कमीने आधी खत्म हुई रिफिल देते थे। पर वह लडकियां एक लड़के के पास कुछ मांगती तो दस लोग वह चीज उन्हें देने के लिए तैयार रहते थे। उन पांचों में से तीन लडकियां काफी बदमाश थी। लड़को से मीठी मीठी बात करके काम करवा लेती थी।
एक दीप्ति नाम की लड़की थी उसने तो देव को गुलाम ही बना दिया था। वह उसकी सारी असाइनमेंट देव से पूरी करके लेती और देव भी रातभर जागकर खुद के साथ उसके भी असाइनमेंट लिखता था।हमने उसे कई बार समझाया था, वह तुम्हारा इस्तमाल कर रही है उससे दूर रहो। पर देव का हमेशा एक ही जवाब रहता था।
" हम फ्रेंड्स है और दोस्ती में एक दूसरे की मदद करना फ़र्झ होता है।"
देव वैसे भी बुद्धू ही था और जब कोई लड़की उससे मदद मांगती थी। तब उसके अंदर का सोशल वर्कर जाग जाता था।हमने इसके बारे में दीप्ति सेभी बात की थी। तब वह हमें
" यह देव और मेरे बीच की
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